जुल्म के सारे हुनर हम पर यूँ आजमाये गये, जुल्म भी सहा हमने, और जालिम भी कहलाये गये!!
जब भी खोला है ये माज़ी का दरीचा मैं ने कोई तस्वीर ख़यालों में नज़र आती है ~फ़रह इक़बाल
काश अठखेलियां लेता कभी तेरे प्यार से उफनते सागर में रोम रोम हर्षित हो जाता तब मिलता सुकून भरता तुझे…
बहुत रोयी वो उस शख़्स के जाने से इश्क़ रहा होगा, यूं ही कोई जज़्बाती नहीं होता
इश्क़ में क्या तुम और क्या मैं आप ही रूठिये, आप ही मानिये और भी बहुत रंग हैं मोहब्बत के…
तलब में शुमार इस कदर दीदार उनका, सौ बार भी मिल जाये अधूरा लगता है।
वजह को एक वजह पे ख़तम करेंगे तुम सजा ऐसी देना की हम बिन खता के खता को खत्म करेंगे
शौक था कभी पढ़ने का उन्हें जिन्हे पढ़ कर सभी छोड़ दिया करते थे आज छोड़ रहे है वो मेहताब…
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था| तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था। इतने मसरूफ़…